क्या हम आज़ाद है?


' मेरे वत के लोगों, जरा आँखों में भर लो पानी...'

इन शब्दों ने मेरी नींद तब उड़ा दी जब मैने से नगर निगम कि घोषणा समझी| पिछ्ले दो दिनो से हम प्यासे जो थे| पर जैसे ही मेने ख़ुद को सम्भाला, मुझे याद आया कि 63 वर्ष पूर्व  ही के दिन, हमने एक गणतंत्र साम्राज्य कि रचना कि थी| वैसा साम्राज्य जहाँ सब आज़ाद होंगे, सब एक समान होंगे, सबको अपना मत रखने का हक होगा| वो अलग बात है कि पिछ्ले दिनों कुछ "बाबाओं और नेताओं" ने इसके दुशप्रभाव का उदाहरण प्रस्तुत किया है|

आज देश तीन रंग से सराबोर रहेगा| लोग अपने सीने पे, गाड़ियों के डैशबोर्ड पर, तिरंगा
लगाएँगे| मैंने भी आज के दिन सफेद कुर्ता पहन कर, तिरंगे झंडे को सीने से लगा कर घूमना अपना फर्ज़ समझा| अपने हिस्से कि देश भक्ति दिखने कि खातिर और ख़ुद को आज़ाद 'समझते' हुए, मै भी सीना चौड़ा करके निकल पड़ा देश भ्रमण के लिए|

कुछ दूर चला तो सामने एक चौराहे पर एक विशाकाय आदमी, श्वेत कुर्ता पहने, झंडा फहरा रहा था| उसका कुर्ता झंडे कि सफेदी से ज्यादा सफेद था| और हो भी क्यो नहीं, आख़िर देश में सबसे ज्यादा उन्नति तो नेता जी ही कर रहे है| खैर, हमने तो राष्ट्रीय त्योहारों का मूल पकवान, "बुंदिया और भुजिया", का एक दौना हाथों में लिया और आगे चल दिए |

कुछ दूरी पे एक चाचा सड़क साफ़ कर रहे थे| मैंने उनसे पूछा, 'चाचा, आज तो छुट्टी का दिन है, फिर आज भी सड़के क्यों चमका रहे हो'? चाचा ने जवाब दिया, 'बेटाआज ही के दिन सबसे ज्यादा कचरा जमा होता है क्योकि ये कागज के झंडे जो हर कोने में लगते है, ये प्लास्टिक के दौने इत्यादि सड़कों पे बिखर जाते है|

मुझे ज़रा एहसास तो हुआ किन्तु फिर भी मै अपने आज़ाद होने के भ्रम को
लेकर आगे बढ़ा कुछ दूरी पे मुझे चुन्नू चाय वाला बड़ी उदास मुद्रा में मिला| वो सचिवालय परिसर में एक चा कि दुकान चलता था | जब मैंने उससे उसकी उदासी का कारन पूछा तो उसने बताया की उसकी दुकान सरकारी महकमों के कारण चलती है, और आज सरकारी छुट्टी होने के कारन उसकी भूख पानी से ही बुझेगी | तब मुझे एहसास हुआ की शायद चुन्नू कि जिंदगी में इस दिन कि कुछ अलग ही परिभाषा है| उसी वक़्त एक सवाल जो मेरे ज़हन में तीर की तरह कौंधा, कि आजादी का अर्थ हम सब के लिए समान क्यो नहीं? ये व्यक्ति मात्र कि संगिनी के क्यो रह गयी है?मै कुछ और आगे बढ़ा तो,एक चौराहे 'छोटे' गाँधी "जी" कि विशालका तस्वीर लगी हुइ थी| उनके कंधे की दायी और हमारे मौन व्रत धारि प्रधानमंत्रि जी कि तस्वीर थी | उनके दाये हा के नीचे उनकी 'माता' कि तस्वीर थी और घुटने के पा उस राज्य के मुख्यमंत्री कि तस्वीर छपी थी| इस तस्वीर के राज़ का तो एक ही अर्थ समझ आता है कि कोइ अपनी माँ का सहारा लेके देश के प्रधानमंत्री का बोझ अपने कन्धे पर ढो हा है| और उस राज्य के मुख्य नेता का स्थान उसके घुटनों पर है| (कुछ लोगो कि अकल घुटनों में होती है)| इस बात से एक कहावत याद आति है, बाप न मारे मेढकी, बेटा तीरंदाज़ |

16 दिसंबर, 1971 को भारतीय सेना ने पाकिस्तान को नाको तले चने चबवाये थे, और हमे उस दिन पर बड़ा गर्व है किन्तु उसी दिन 2012 में हुई दिल्ली कि क्रूर घटना ने हमे शर्मसार कर दिया| अब शायद उस दिन को निर्भया के लिए जाना जयेगा 
एक ने हमे गौरवान्वित किया तो दूसरे ने हमारा सर युगों-युगों के लिए नीचा कर दिया| ऐसे कई और सवाल मेरे मान को झकझोर रहे थे| क्या अपनी रुढीवादी सोच से आज़ाद हुए है? क्या हमारी बहने बुर्के से बाहर आयी है? क्या हम लिंग मतभेद  कर पाये हैपर हाँ, हम ये सोच के खुश हो सकते है कि  से  आज के दिन रिश्वतखोरी तो  हो जाती है|


आजादी का अर्थ ये बिल्कुल नहीं कि हमने कितना पश्चिम कि सभ्यता को अपनाया है| संस्कारों कि कैद में आजादी का स्वाद दोगुना हो जाता है| एक स्थान
पर  मुर्ति को देख कर एक बालक अपने पिता से पूछता है, 'पिता जी, ये महावीर जी की मूर्ति है या बुद्ध भगवान् की?' इसपर उसके पिता ने उत्तर दिया, 'बेटा, फोटो खिचाने से मतलब है, चाहे किसी कि भी हो'| इससे ये पता चलता है की पीढ़ी-दर-पीढ़ी संस्कृति के प्रति हमारी रुचि कितनी  होती जा रही हैहमने ये नहीं सोचा की हम अपनी अगली पीढ़ी को क्या देकर जाएंगे| बच्चो के परवरिश में संस्कार और संस्कृति का महत्वपूर्ण योगदान रहता है| और इसका सीधा-सीधा असर हमारी देशभक्ति कि भावना पर पड़ता है


हमे सच मायेने में आजादी पाने में थोड़ा और समय लगेगा| हम नौसिखीयों का खून साल में बस दो बार खौलता है| वो 16 दिसंबर के बाद रापथ कि घटना तो मुझे ग्लोबल वार्मिंग का असर लगता है| आज हम इन् बलिदानों कि धरती कि माटी, तिलक के लिए नहीं, बल्कि एक दूसरे पर कीचड़ उछलने के लिए
इस्तेमाल कर हे हैआज हम रिश्वतखोरी, कालाबाज़ारी, बलात्कार, घोटाले, इत्यादि जैसे सवालों का बोझ उठा के चल रहे है| इनके रहते हुए आजादी बस एक भ्रम मात्र है


हमे बदलना होगा! और देश के नौजवान ये कर सकते है| हमे इन निकम्मे लोगों से देश को उबारना होगा| हमे वोट बैंक बनना ड़ेगा| क्योंकि बासी कढ़ी में उबाल नहीं आता| हर 15 अगस्त या 26 जनवरी को तिरंगा सीने से लगा कर घूमने से पहले हमे ये सोचना चाहिए कि क्या हम में उन समस्याओं से उबर पाये है?

"क्या हम सच में आज़ाद है?"


                                                              Signing off:-Mr  R.K. Narnoli 

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